कितना अच्छा होता -
जो तुम साथ होते...
चलते रहते हम ,
नंगे पाँव ही -
नदिया के किनारे
ठंढी रेत पर
हाथों में हाथ लिए
और सिर पर -
सफ़ेद चाँद उठाये
या फिर -
किसी ढलती शाम को
बैठ जाते हम
किसी चट्टान पर
पहाड़ी मंदिर के पीछे
जहाँ तुम -
सिर रखकर अपना
मेरे कन्धों पर
देखती रहतीं - सूरज को
मिलते हुए क्षितिज से
और
पिया मिलन को
तुम्हारे देख लिए जाने की -
शर्म से लाल हो उठती
वह दिशा |
या फिर --
किसी ऐसी ही शाम को
अमराई में बैठ कर
मेरी पीठ से
अपनी पीठ टिकाये
तुम सुनती रहतीं
चुपचाप
गाँव के उस छोर से आती
आवाज़ बांसुरी की
और
पेड़ों के ऊपर से
उड़ जाती कोयल
चंद कूक लगाकर |
या फिर --
शांत झील के समीप
मुझे बिठाकर पास अपने
तुम दिखातीं
आज ही रचीं
मेहंदी वाली हथेलियाँ
मेले की चूड़ियाँ
मंझोली लाल बिंदिया
सुनहले गोल झुमके
ध्रुवतारे सी
लौंग की चमक
कुछ ही पलों में
उतर आता चाँद - झील में
और तुम्हारे रंगे पैरों को
छू लेने की कोशिश में
सिहर जाता पूरा आकाश
पर - इन सब से
अनजान बने तुम
मुझे अपने गले से लगाये
अधमुंदी आँखों में
सपनो के हार पिरोते |
सचमुच --
कितना अच्छा होता
जो तुम साथ होते |